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स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णम॑स्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्। क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्य᳖दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः ॥८ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। परि॑। अ॒गा॒त्। शु॒क्रम्। अ॒का॒यम्। अ॒व्र॒णम्। अ॒स्ना॒वि॒रम्। शु॒द्धम्। अपा॑पविद्ध॒मित्यपा॑पऽविद्धम् ॥ क॒विः। म॒नी॒षी। प॒रि॒भूरिति॑ परि॒ऽभूः। स्व॒यम्भूरिति॑ स्वय॒म्ऽभूः। या॒था॒त॒थ्य॒त इति॑ याथाऽत॒थ्य॒तः। अर्था॑न्। वि। अ॒द॒धा॒त्। शा॒श्व॒तीभ्यः॑। समा॑भ्यः ॥८ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:40» मन्त्र:8


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जो ब्रह्म (शुक्रम्) शीघ्रकारी सर्वशक्तिमान् (अकायम्) स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीररहित (अव्रणम्) छिद्ररहित और नहीं छेद करने योग्य (अस्नाविरम्) नाड़ी आदि के साथ सम्बन्धरूप बन्धन से रहित (शुद्धम्) अविद्यादि दोषों से रहित होने से सदा पवित्र और (अपापविद्धम्) जो पापयुक्त, पापकारी और पाप में प्रीति करनेवाला कभी नहीं होता (परि, अगात्) सब ओर से व्याप्त जो (कविः) सर्वत्र (मनीषी) सब जीवों के मनों की वृत्तियों को जाननेवाला (परिभूः) दुष्ट पापियों का तिरस्कार करनेवाला और (स्वयम्भूः) अनादि स्वरूप जिसकी संयोग से उत्पत्ति, वियोग से विनाश, माता, पिता, गर्भवास, जन्म, वृद्धि और मरण नहीं होते, वह परमात्मा (शाश्वतीभ्यः) सनातन अनादिस्वरूप अपने-अपने स्वरूप से उत्पत्ति और विनाशरहित (समाभ्यः) प्रजाओं के लिये (याथातथ्यतः) यथार्थ भाव से (अर्थान्) वेद द्वारा सब पदार्थों को (व्यदधात्) विशेष कर बनाता है, (सः) वही परमेश्वर तुम लोगों को उपासना करने के योग्य है ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्यो ! जो अनन्त शक्तियुक्त, अजन्मा, निरन्तर, सदा मुक्त, न्यायकारी, निर्मल, सर्वज्ञ, सबका साक्षी, नियन्ता, अनादिस्वरूप ब्रह्म कल्प के आरम्भ में जीवों को अपने कहे वेदों से शब्द, अर्थ और उनके सम्बन्ध को जनानेवाली विद्या का उपदेश न करे तो कोई विद्वान् न होवे और न धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के फलों के भोगने को समर्थ हो, इसलिये इसी ब्रह्म की सदैव उपासना करो ॥८ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः परमेश्वरः कीदृश इत्याह ॥

अन्वय:

(सः) परमात्मा (परि) सर्वतः (अगात्) व्याप्तोऽस्ति (शुक्रम्) आशुकरं सर्वशक्तिमत् (अकायम्) स्थूलसूक्ष्मकारणशरीररहितम् (अव्रणम्) अच्छिद्रमच्छेद्यम् (अस्नाविरम्) नाड्यादिसम्बन्धरहितम् (शुद्धम्) अविद्यादिदोषरहितत्वात् सदा पवित्रम् (अपापविद्धम्) यत् पापयुक्तं पापकारि पापेप्रियं कदाचिन्न भवति तत् (कविः) सर्वज्ञः (मनीषी) सर्वेषां जीवानां मनोवृत्तीनां वेत्ता (परिभूः) यो दुष्टान् पापिनः परिभवति तिरस्करोति सः (स्वयम्भूः) अनादिस्वरूपो यस्य संयोगेनोत्पत्तिर्वियोगेन विनाशो मातापितरौ गर्भवासो जन्मवृद्धिक्षयौ च न विद्यन्ते (याथातथ्यतः) यथार्थतया (अर्थान्) वेदद्वारा सर्वान् पदार्थान् (वि) विशेषेण (अदधात्) विधत्ते (शाश्वतीभ्यः) सनातनीभ्योऽनादिस्वरूपाभ्यः स्वस्वरूपेणोत्पत्तिविनाशरहिताभ्यः (समाभ्यः) प्रजाभ्यः ॥८ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यद् ब्रह्म शुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धं पर्यगाद्यः कविर्मनीषीः परिभूः स्वयम्भूः परमात्मा शाश्वतीभ्यः समाभ्यो याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधात् स एव युष्माभिरुपासनीयः ॥८ ॥
भावार्थभाषाः - हे मनुष्याः ! यद्यनन्तशक्तिमदजं निरन्तरं सदा मुक्तं न्यायकारि निर्मलं सर्वज्ञं साक्षि-नियन्तृ-अनादिस्वरूपं ब्रह्म कल्पादौ जीवेभ्यः स्वोक्तैर्वेदैः शब्दार्थसम्बन्धविज्ञापिकां विद्यां नोपदिशेत् तर्हि कोऽपि विद्वान्न भवेत्, न च धर्मार्थकाममोक्षफलं प्राप्तुं शक्नुयात्, तस्मादिदमेव सदैवोपाध्वम् ॥८ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - हे माणसांनो ! ब्रह्म अनंत शक्तीनेयुक्त, जन्मरहित, सदैव मुक्त, न्यायी, निर्मळ, सर्वज्ञ, सर्वसाक्षी, नियंत्रक, अनादी स्वरूप असून, त्याने सृष्टीच्या आरंभी जीवांना वेदांचे शब्द, अर्थ व त्यांचा संबंध दर्शविणाऱ्या विद्येचा उपदेश न केल्यास कोणीही विद्वान होणार नाही व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांचे फळ भोगण्यास समर्थ होणार नाही. त्यासाठी त्या ब्रह्माची सदैव उपासना करा.